अखिल भारतीय क्षत्रिय
छीपा / रंगारी समाज

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हमारा इतिहास

भाट से मिली जानकारी अनुसार ….
ना तो हम रंगारी थे , ना ही हम छीपा थे , ना ही हम खानाबदोश थे ; मूलतः हमारे पूर्वज क्षत्रिय योद्धा थे , अर्थात हम राजपूत है ! पर समय चलते हमारे आजीविका की वजह से हमे छिपा / रंगारी कहा गया , हालाकि हमारी कपड़े रंगाई की आजीविका पूर्ण कार्यकाल में बोहोत कम वर्षो की रही है ज्यादा कार्यकाल के लिए हम लड़ाकू योद्धा थे।

वीर शिरोमणि श्री. महाराणा प्रताप जी सिसोदिया इनके नेतृत्व मे हमारे पूर्वजों की हल्दीघाटी युद्ध में भी भागीदारी थी , वे क्षत्रिय योद्धा थे। इसलिए हम हमारा क्षत्रिय होने का अस्तित्व जाति में क्षत्रिय उल्लेख कर के बनाए रखे है।

हल्दीघाटी युद्ध में कुछ ही योद्धा शेष बचे थे इसलिए संघर्ष के दौर मे सेनापति के उपदेश से छुपने का आदेश तथा वंश की बेला संभल सके के इसलिए हमें ५०० से ६०० परिवारों को “छिपा” दिया गया ( जैसे की महाभारत में अज्ञातवास था उसप्रकार से ) , ईस कारण हम छिप जाने से कालांतर से छिपा कहलाए गए।

अपने मूल अस्तित्व वाले जगह को ढाणी बोला करते थे और डोडिया खेड़ा , जिला उन्नाव , राजस्थान मे हम बस गए !

अभीभी हमारा समाज ” छीपा का अकोला गांव ” राजस्थान मे बड़ी मात्रा मे है !

हमारा साम्राज्य मेवाड़ था एव भाषा रेवाड़ी इसी भाषा के चलते हमारी पहचान छिपा है !

निजाम उस समय बहुत क्रूर थे और मां/स्त्रियों पर अत्याचार काफी होते थे उनपर जबरदस्ती की जाति थी मार दिया जाता था , इसलिए उस समय जौहर हुवा करते थे और हमे हमारी जान बचा कर छिपना पड़ा था।

हमे युद्ध के अलावा दूसरा काम मालूम नहीं था ना हमारे पास कोई आजीविका का साधन बचा था , तो समय रहते हमारे पूर्वज युद्ध के बाद छुपी हुई स्थिति ” अज्ञातवास ” के दौरान खानाबदोश कहलाए गए जैसे हम आज रंगारी / छीपा कहलाए जा रहे है ।

फिर धीरे धीरे आजीविका के लिए एक दूसरेका देखके कपड़े रंगाई का काम करने लगे ओर रंगाई किए गए कपड़े फेरी से बेचने लगे ,धीरे धीरे यह काम कपड़े के गट्ठे में बदल गया!

क्षत्रिय (योद्धा) / राजपूत यह जात भी थी वर्ण भी था, आज भी बोहोत से लोग छीपा , रंगारी , ठाकुर , परदेसी के साथ साथ क्षत्रिय और राजपूत नाम जात में लिखते है।

पहले के जमाने में हमारे पास हाथी, उठ और घोड़े हूवा करते थे हमारे पास कालांतर मे १९७० तक दादाजी लोगों के पास घोड़े बच गए थे, बहुत से इस बात को जानते है!

हमारे समाज का जन्म उस समय राजघराने का ही है , अर्थात हम राजपूत क्षत्रिय ही है लेकिन धीरे धीरे समय बीतते गया ओर हमारी परंपराएं नष्ट होते चली गई , हालाकि हमने हमारी बोहोत सी परंपराएं संजो कर रखी हुई है।

हमारे समाज का जन्म कैसे और कब हुवा यह राव साहब ( हमारे सर्व पुराने भाट ) भी बता नही पाएंगे, लेकिन पुरखो के नाम पर कुल चलते गया जैसे की उदाहरण आसारामसिंह बघेल भारद्वाज गोत्र उनके पास अपने समाज की पोथी शायद सन १६०० के पहले की नही है। तो पोथी ( कागजी तौर से ) के हिसाब से हमारा समाज १६०० का मान सकते है।

जैसे हम युद्ध खत्म हुआ हम छिपते हुए हमारा डेरा / ढाणी ( जैसे की बघेल डेरा , राकेश डेरा …. सोलंकी डेरा ) सबसे पहले महाराष्ट्र के पौनी तहसील ( नदी की वजह से ), जिला भंडारा में आ बसे, बादमें हमारा समूह पौनी से भीवापुर होते हुए बाकी गांव में फ़ैल गए , आज भी पौनी में हमारे समाज के १९०० से रहिवासी होने के कागजात कार्यालय में उपलब्ध है। ( नात्थुसिंग जी सिसोदिया भाट साहब से मिली हुई जानकारी। हमारे समाज में केवल दो सती हुई है ओर वे केवल कैलाबाग परिवार से ही थे सन 1613 ,1918 में , ऐसी अनेक सतिया थी पर पोथी में दो का ही वर्णन है । हमारी राजपूत जाति ज्वाला माता को मानती थी ओर दूल्हा देव को मानती थी ।)

डीएनए 🧬 को मेंटेन रखने के हिसाब से परवर्ण में शादी करना अनुचित माना जाता था , ऐसा करने से पूर्वजों से चलते आराहा डीएनए का साइकिल में अलग बदलाव आजायेंगा । एक ही वर्ण में अनेक उचले निचले वर्ग ( जाति ) को देखा जाता है , राजाओं के जमाने में केवल उच्च स्तर के राजपूत / क्षत्रिय एक दूसरे से वैवाहिक संबंध स्थापित करते थे। पिता संबंध से कुछ शेखावटी और दासीपुत्र को भी राजपूत / क्षत्रिय माना जा सकता है । राजा के सभी पुत्र अगर युद्ध में वीर शहीद हो जाते थे तो ये ही दासीपुत्र राजा बन जाते थे । उदाहरण ” सम्राट अशोक ” दासी पुत्र थे पर राजपूत भी थे ।

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राजपूतों की वंशावली

” चार हुतासन सों भये कुल छत्तिस वंश प्रमाण
भौमवंश से धाकरे टांक नाग उनमान
चौहानी चौबीस बंटि कुल बासठ वंश प्रमाण. ”

अर्थ:-दस सूर्य वंशीय क्षत्रिय दस चन्द्र वंशीय,बारह ऋषि वंशी एवं चार अग्नि वंशीय कुल छत्तिस क्षत्रिय वंशों का प्रमाण है,बाद में भौमवंश नागवंश क्षत्रियों को सामने करने के बाद जब चौहान वंश चौबीस अलग अलग वंशों में जाने लगा तब क्षत्रियों के बासठ अंशों का पमाण मिलता है।

क्षत्रिय छीपा / रंगारी समाज संगठन” की आवश्यकता क्यों है?

आधुनिक भौतिकवाद के अतिरेक में एवं वर्तमान राजनीतिक लोकतांत्रिक परिवेश में अनेक समाज बंधु प्रायः कहते रहते हैं कि जब वर्ण व्यवस्था प्रासंगिक नही रही, जाति व्यवस्था भी धीरे धीरे समाप्त होती दिख रही है तब ”क्षत्रिय छीपा / रंगारी समाज संगठन” की आवश्यकता क्यों है?

ऐसे बंधुओं द्वारा यह सिद्ध करने की कोशिश भी होती है कि समाज में जितनी बुराइयां हैं, उन सबके लिए जाति-व्यवस्था ही दोषी है। परन्तु आक्षेपों के बावजूद भी जाति व्यवस्था अभी तक चल रही है और किसी न किसी रूप में आगे भी चलती रहेगी, यही इस बात का प्रमाण है कि यह व्यवस्था इतनी बुरी नहीं है, जितनी समझी जाती है।

मेरे विचार से तो स्वार्थी तत्वों द्वारा दी गई सामाजिक बुराइयों / कुरीतियों ने ही जाति व्यवस्था को दूषित कर रखा है। वृहद स्तर पर देखें तो व्यवहारिक जातीय संगठन का अभाव और कमजोर होते जाना मनुष्य को व्यक्तिगत और सार्वजनिक रूप से कमजोर करता है। वास्तव में जातीय संगठन की कमजोरी तो सामाजिक बुराइयों / कुरीतियों का अंतर्जातीयकरण करती दिख रही है …

– निवेदक अशोक कुमार राठौर
जबलपुर (मध्यप्रदेश)

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